Friday, April 13, 2012

कब टूटेगी अंधविश्वासों की जंजीर?

इन दिनों कई चैनलों पर निर्मल बाबा का दरबार सजा मिलता है। हाल ही में निर्मल के भक्तों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इंटरनेट पर बाबा की वेबसाइट की लोकप्रियता का आकलन किया जाए, तो पता चलता है कि एक साल में इसे देखने वालों की संख्या में चार सौ प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोतरी हुई है। टीवी चैनलों पर उनके कार्यक्रम के दर्शकों की संख्या में भी भारी इजाफा हुआ है। हालांकि, उनके समागम का प्रसारण देश-विदेश के 35 से भी अधिक चैनलों पर होता है, जिन्हें खासी लोकप्रियता भी मिल रही है, पर उनके बीच कोई ब्रेक नहीं होता।
चैनलों को इन प्रसारणों के लिए मोटी कीमत भी मिल रही है। दरबार लगाकर लोगों की समस्याओं का समाधान करने वाले निर्मल बाबा आज करोड़पति हैं। बाबा हर समस्या का आसान-सा समाधान बताते हैं। काले पर्स में पैसा और अलमारी में दस के नोट की एक गड्डी रखना उनके प्रारंभिक सुझावों में से हैं। इसके अलावा, दरबार में जाने भर से सभी कष्ट दूर होने की गारंटी दी जाती है। मगर, वहां जाने की कीमत दो हजार रुपए प्रति व्यक्ति है। दो साल से अधिक उम्र के बच्चे से भी प्रवेश शुल्क लिया जाता है। यदि एक समागम में 20 हजार लोग (अमूमन इससे ज्यादा लोग मौजूद होते हैं) भी आते हैं, तो उनके द्वारा जमा राशि चार करोड़ होती है।
यह समागम हर दूसरे दिन होता है और अगर महीने में 15 ऐसे समागम भी होते हों, तो बाबाजी को कम से कम 60 करोड़ रुपए का प्रवेश शुल्क मिल चुका होता है। इस मोटी कमाई में एक छोटा, पर अहम हिस्सा उस मीडिया को भी जाता है, जिसने बाबाजी को शोहरत दी है। वैसे, अब कुछ अनचाही बातें भी होने लगी हैं। पिछले महीने बाबा को एक भक्त के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पुलिस तक की मदद लेनी पड़ी। उसने बाबा को भेजे जाने वाले पैसे में से 1.7 करोड़ रुपए अपने और अपने परिवार के खाते में डलवा लिए। पुलिस ने बताया कि निर्मल बाबा ने बैंक से शिकायत की थी। बैंक ने जांच की, जिसके बाद आरोपियों पर मामला दर्ज हुआ।
उनके भक्त अपनी समस्या सुलझाने के लिए सवाल तो करते ही हैं, उन पर पिछले दिनों बरसी कृपा (?) का गुनगान भी करते हैं। चैनलों पर उनके अनुभवों का प्रसारण भी होता है, जिनमें उनके सभी कष्टों के निवारण का विवरण होता है। लोगों को दरबार में आने के लिए कार्यक्रम का यही हिस्सा सबसे ज्यादा प्रेरित करता है। ट्विट्टर पर उन्हें फॉलो करने वालों की संख्या करीब 40 हजार हो चुकी है। फेसबुक पर बाबा के प्रशंसकों का पेज है, जिसे तीन लाख लोग पसंद करते हैं। मात्र डेढ़-दो वर्षो में शोहरत व दौलत की बुलंदियों को छूने वाले निर्मल बाबा वर्तमान में समागम के अलावा और क्या करते हैं और अपने भक्तों से मिलने वाली करोड़ों रुपए की धनराशि से वे क्या कर रहे हैं, इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। अपने निर्मल दरबारों की कमाई से बाबा सरकार को कितना टैक्स देते हैं, यह भी पता नहीं। मीडिया ने भी टीआरपी की जंग में ऐसे बाबाओं को आश्रय देना शुरू किया है।
खैर, बाबाओं के इस फैलते जाल के लिए मात्र मीडिया ही दोषी नहीं है। पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ जिस तरह से इन बाबाओं के चक्कर लगाती नजर आती है, उससे लगता है कि मानों हम आज भी उसी युग में जी रहे हों, जहां कर्म से अधिक भाग्य को बलवान माना जाता था। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर। सभी धर्मो के ग्रंथों का सार भी यही है कि हम अपनी सामथ्र्य के अनुसार कर्म करें, उसके अच्छे या बुरे परिमाण की चिंता न करें। किसके जीवन में सुख-दुख नहीं आते? सवाल है कि क्या इन बाबाओं के जीवन में दुख नहीं आते होंगे? ये भी हमारी तरह पांच तत्वों के जीव हैं। अनुभव तो यही कहते हैं कि हमारी अंध-श्रद्धा के कारण बाबाओं कद बढ़ जाता है। तब ये गलत काम भी करने लगते हैं। हो सकता है कि ये तथ्य निर्मल बाबा पर लागू न हों, पर यह सच है कि बाबा खूब दौलत कमा रहे हैं। पता नहीं, तुलसीदास और कबीर के देश की जनता इस बात को कब समझेगी कि ये बाबा दुकानदार हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
-- सिद्धार्थ शंकर गौतम



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